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क्या उद्धव और राज साथ आएंगे?

By Anil
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shivsena-mumbai
[अनिल कुमार] कहते हैं जब उंगलियों से पूरी ताकत न लग रही हो तो एक मुट्ठी का उपयोग करना बेहतर होता है लेकिन अगर इसके ठीक उलट होता है .... तो उंगलियां मुट्ठी के सामने कमजोर ही साबित होती हैं। पिछले गत वर्षों से महाराष्ट्र नव निर्माण सेना व शिवसेना की बीच चल रही तनातनी पर यह पंक्तियां बखूबी लागू होती हैं। वर्ष 2012 में बाल ठाकरे की मृत्यु के बाद इसकी उम्मीद नाममात्र ही रह गई थी कि एक ही परिवार के राज ठाकरे व उद्धव ठाकरे कभी एक हो पाएंगे ।

वर्तमान के दृश्य को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि यदि ठाकरे परिवार को अपना खोया हुआ जनाधार थोड़ा-बहुत भी वापस बटौरना है तो इसके लिए पहली शर्त टूटकर बनी पार्टी महाराष्ट्र नव निर्माण सेना व शिवसेना को एक साथ आना ही होगा। क्योंकि जब शिवसेना में टूट पड़ी तो ठाकरे परिवार की ओर से महाराष्ट्र में अपने दम पर सरकार बनाने की कोशिशों पर भी पानी फिर गया।

क्या अपने दम पर सरकार बना पायेगी शिवसेना?

यह सवाल ऐसा है जो अभी से नहीं तब से बना हुआ है जब पहली मर्तबा शिवसेना ने बाल ठाकरे के नेतृत्व में वर्ष 1995 में भारतीय जनता पार्टी के साथ मिलकर महाराष्ट्र की सत्ता पर अपना एक अधूरा कब्ज़ा जमाया था। यह अधूरापन वर्तमान में भी अधूरा है। दरअसल आज भी शिवसेना भारतीय जनता पार्टी के बिना अपने दम पर जनाधार खोजने में सफल नहीं हो पाई है।

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि इसकी मुख्य वजह शिवसेना में अंदरूनी फूट व वर्ष 2005-06 में उस फूट का महाराष्ट्र नव निर्माण सेना के गठन के रूप में सामने आ जाना है। गौर करने वाली बात है कि यह दरार आज भी जस की तस है और शिवसेना को आज भी भाजपा के सहारे की जरूरत है। वर्तमान में महाराष्ट्र विधानसभा में शिवसेना के पास 4 सीटें हैं। शिवसेना की खुद की गलतियों का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि वर्ष 1995 में शिवसेना के पास खुद के दम बहुमत न सही लेकिन 73 सीटें आईं थीं और अब केवल 4 सीटें हैं।

जनाधार का महत्व नहीं समझ पाई

वर्ष 1995 में मिले जनाधार का महत्व शिवसेना कभी समझ ही नहीं पाई। दरअसल, इसका महत्व समझना इसलिए महत्वपूर्ण था क्योंकि विश्वास न करने लायाक 73 सीटें मिलना शिवसेना के लिए एक सुनहेरा मौका ही था। जो अवसर शिवसेना ने गंवाकर शायद ऐतिहासिक गलती कर दी। वर्ष 1995 से पहले 1970, 1984, 1992, 1993 में हुए दंगों के बाद एक आम तबका बहुत बुरी तरह डर गया था। इन दंगों में मुस्लिम व हिंदू दोनों समुदाय के लोग मारे गए थे। बिडम्बना तो देखिए कि इतना सब कुछ होने के बाद एक आम तबके ने विकल्प न होने की स्थिति में भी शिवसेना पर विश्वास किया था जिसमें मराठा समुदाय भी शामिल था। लेकिन शिवसेना अपने अंदरूनी कलह में इतनी उलझी रही कि उसकी राजनीतिक जमीन कब खिसक गई पता ही नहीं चला।

उलझे रहे अंदरूनी कलह में

वर्ष 2005-06 में कुछ अंदरूनी कलह की वजह से पार्टी नेता नारायाण राणें को पार्टी से निकाला गया तो पार्टी के एक तबके में पनप रही फ्रस्ट्रेशन यानि झुंजलाहट निकलकर बाहर आ गई। कहने में कोई गुरेज नहीं कि इस झुंजलाहट की चपेट में बालठाकरे के भतीजे राज ठाकरे भी आ गए और अपरिपक्वता का परिचय देते हुए अलग पार्टी महाराष्ट्र नव निर्माण सेना के रूप में गठित करने का निर्णय ले लिया। जिसके बाद शिवसेना अध्यक्ष उद्धव ठाकरे व महाराष्ट्र नव निर्माण सेना के अध्यक्ष राज ठाकरे के बीच में तनातनी ऐसी ही बनी हुई है।

समय के साथ खत्म होने की ओर

समय के साथ-साथ महाराष्ट्र नव निर्माण सेना का शिवसेना में विलय होने के फायदे घटते जा रहे हैं और नुकसान बढ़ते जा रहे हैं। कहा जाए तो फायदे तो बहुत ही कम हैं लेकिन नुकसान बताना जरूरी है। पहला नुकसान यह है कि महाराष्ट्र नव निर्माण सेना उत्तर-भारतीय नागरिकों के साथ महाराष्ट्र में भेदभाव का समर्थन करती रही है। दूसरा, महाराष्ट्र नव निर्माण सेना के कार्यकरताओं ने कई बार उत्पात की स्थिति पैदा की। जिससे शिवसेना के 'गुंडेवाली' छवि के बाद महाराष्ट्र नव निर्माण सेना की छवि भी आतंकित करने देने वाली बनी है।

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English summary
The big question in Maharashtra State politics today is that will Shivsena erect govt by his own strength ever?
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