इसलिए सेना और पुलिस के अधिकारी शामिल हो रहे हैं भाजपा में
नई दिल्ली। पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल वी के सिंह भाजपा में शामिल हुए इसके पहले मुंबई पुलिस के पूर्व कमिश्नर सत्यपाल सिंह, रॉ के पूर्व प्रमुख संजीव त्रिपाठी, पूर्व गृह सचिव आर के सिंह ने भाजपा की सदस्यता ली। ऐसे में ये सवाल भी उठने लगे हैं कि क्या कारण है कि सेना, पुलिस और पूर्व रक्षा एजेंसियों के प्रमुखों ने भाजपा की तरफ रूख किया। इसे 'मोदी लहर' का इफेक्ट माना जाए या फिर इन अधिकारियों की अपने अपने क्षेत्रों में बेहतरी की उम्मीद। हालांकि पूर्व आईपीएस अधिकारी किरण बेदी ने मना कर दिया लेकिन यदा कदा उनके भाजपा से जुड़ने की खबरें आती रहती हैं।
यह किसी से छिपा हुआ नहीं है कि आर्थिक मोर्चे पर सरकार पूरी तरह से असफल रही है। देश में महंगाई और बेरोजगारी तो बढ़ी ही है साथ ही आतंकी हमले भी पिछले दस वर्षों में बड़ी संख्या में हुए। खास बात यह रही कि सरकार ने इन्हें रोंकने की बात तो दूर इन पर कोई बड़ी कार्रवाई से बचने का प्रयास किया।
नक्सलवाद, आतंकवाद के वाहक और मजबूत होते गये। आतंक के मुद्दे पर सरकार ने तुष्टिकरण का रास्ता अपनाया और वोट बैंक की राजनीति करना ही बेहतर समझाा। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपने पहले कार्यकाल की अपेक्षा दूसरे में ज्यादा मजबूर नजर आये।
ऐसे में ये कुछ मुद्दे हैं जो सेना और पुलिस का रूख संभावित सरकार की तरफ मोड़ते हैं-
सरकार के रूख ने किया निराश
पिछले कुछ वर्षों में भारतीय सेना को सरकार की तरफ से कोई सहयोग नहीं मिला है, चाहें वो हथियारों की खरीद का मामला हो, पाकिस्तान द्वारा बार बार किया गया सीमा उल्लंघन हो या फिर चीन द्वारा भारतीय सीमा में प्रवेश कर जाना। हर बार सरकार ने सेना को न तो कोई कार्रवाई का भरोसा दिलाया और न ही यह दर्शाया कि उनकी लिस्ट में सेना और सुरक्षा मुद्दे भी प्रमुखता रखते हैं।
नक्सली हिंसा को रोंकने का प्रयास नहीं
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपने भाषणों में स्वीकार भी किया है कि नक्सलवाद आज देश के लिए एक बड़ी समस्या बन चुका है लेकिन संप्रग ने अपने कार्यकाल में इससे निपटने के लिए कोई ठोस प्रयास नहीं किये। यहां तक कि 2010 में दंतेवाड़ा में 76 जवानों की हत्या के बाद भी सरकार ने मामले में लीपापोती कर मिट्टी डाल दी। अब माओवादी देश के प्रमुख शहरों की ओर रूख कर रहे हैं, उनके पास सेना से बेहतर और अत्याधुनिक हथियार हैं।
सीआरपीएफ जवानों ने छोड़ी नौकरी
सरकार पुलिस बलों का आत्मविश्वास बढ़ाने में पूरी तरह नाकाम रही। पिछले कुछ वर्षों में 65000 केंद्रीय पुलिस बल के जवानों ने नौकरी छोड़ी। जबकि सिर्फ चार सालों में 16000 केंद्रीय पुलिस बल अफसरों ने त्याग पत्र दिया। कहा जाता है कि जवानों में सरकार की उदारवादी नीति के कारण अवसाद घर कर गया। अत: सरकार इस मोर्चे पर भी बुरी तरह नाकाम रही है।
आतंक पर तुष्टिकरण की राजनीति
आतंकी वारदातों पर भारत सरकार ने जो ढुलमुल नीति अपनाई वो शायद ही किसी देश ने अपनाई हो। जब राज्य की सरकारों ने इन वारदातों पर कार्रवाई की तो गृहमंत्री ने बयान दिया कि अल्पसंख्यकों को निशाना न बनाया जाय। मतलब सरकार की मंशा आतंक के मुद्दे पर भी तुष्टिकरण की रही है। ऐसे में सवाल यह भी है कि क्या देश की सुरक्षा से बड़ा कोई हो सकता है? सरकार के उदासीन रवैये के कारण ही इंडियन मुजाहिदीन आज भारत में और भी मजबूत हो गया है, हाल ही में इस संगठन ने बोध गया और पटना रैली में भी धमाके किये।
बीएसएफ जवानों को मजबूर कर दिया
भारत की सीमाओं की स्थिति भी अच्छी नहीं है। बांग्लादेश सरकार को चेतावनी देने की जगह भारत सरकार ने बीएसएफ जवानों के लिए निर्देश जारी किये कि वो अनधिकृत रूप से सीमा पार रहे जवानों पर गोलियां न चलायें। अगर वह ऐसा करते हैं तो उन पर कार्यवाई की जाएगी। कई मौके ऐसे भी आये जब बांग्लादेश के स्मगलरों ने बीएसएफ जवानों को बुरी तरह पीटा और मार भी दिया। इस स्थिति ने जवानों के हाथ बांध दिये वहीं बांग्लादेश के लोगों को खुला घुसपैठ करने का मुद्दा दे दिया।
अच्छे हथियार नहीं है
पूर्व में भारत के इंडियन चीफ एयर स्टाफ एयर मार्शल ने एक बयान में कहा था कि अगर पाकिस्तान और चीन की सेनाएं मिलकर भारत पर हमला करती हैं तो भारतीय सेना के पास इन हमलों का कोई जवाब नहीं होगा। अधिक याद दिलाने की जरूरत नहीं है कि अब तक कई रक्षा सौदों में रिश्वत के मामले उजागर हो चुके हैं, वहीं यह भी सच है भारत की सेनाओं को युद्ध हथियार मिलने में काफी देरी हो जाती है।