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जेएनयू में आइसा की जीत और मोदी का जादू फीका पड़ने के मायने

By Vivek
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नई दिल्ली(विवेक शुक्ला) जवाहरलाल नेहरू विश्‍वविद्यालय में आइसा की जीत को वाम राजनीति की जीत के तौर पर नहीं, शहरी 'आधुनिकता' की जीत के तौर पर देखता हूं। वहां पर मोदी का जादू का भी चला है।

JNU-Elections-AISA-victory

एबीवीपी के 12 काउंसलर जीते। एबीवीपी का वोट शेयर भी बढ़ा। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि मोदी का जलवा नहीं दिखा । जेएनयू के पूर्व छात्र शशि झा मानते हैं कि जेएनयू में आने वाले दौर में एबीवीपी का असर बढ़ेगा।

हालांकि उन्होंने माना कि जेएनयू वालों की दुनिया कैंपेस तक सिमटी होती है। वे वहां पर रहकर क्रांति करते हैं और फिऱ सिविल सर्विसेज में चले जाते हैं।

जानकार यह भी मानते हैं कि शहरी आधुनिकता, अभिजात्‍य होने की बाध्‍यता, कैरियरवादी आकांक्षा और बौद्धिक जगत में डॉमिनेंट विचार की सत्‍ता- ये सब मिलकर आइसा की जीत के पीछे के कुछ अदृश्‍य कारण हैं।

जैसे-जैसे सत्‍ता के कमरों में प्रतिगामी विचारों का दबदबा होता जाएगा, वैसे-वैसे जेएनयू इस अर्ध-सामंती औपनिवेशिक समाज (भाकपा-माले लिबरेशन की वैचारिक लाइन) की शक्‍ल लेता जाएगा और आइसा की जरूरत कम होती जाएगी।

इसे इस तरह भी कह सकते हैं कि भाकपा-माले (लिबरेशन) भारतीय समाज का जो वैचारिक विश्‍लेषण करता है, उसके छात्र संगठन का जेएनयू की सत्‍ता में होना खुद उसी का निषेध है।

दरअसल, जेएनयू अनिवार्यत: एक शहरी आधुनिक नेहरूवादी समाजवाद का यह आखिरी किला इसी अवधारणा पर गढ़ा भी गया था। जिस 'आधुनिकता' की बात मैं कर रहा हूं, वह एक न्‍यूनतम एलिट नागरिक की मांग करती है।

इस की आलोचना आप राष्‍ट्रवादियों के चालू जुमलों में बड़ी आसानी से खोज सकते हैं।

वरिष्ठ पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव कहते हैं कि ये है कि एबीवीपी, बीजेपी या कोई भी राष्‍ट्रवादी संगठन अपनी मान्‍यताओं के चलते जेएनयू किस्‍म का इलीट नहीं हो सकता।

देश भर में प्रतिगामी विचारों और व्‍यवहार के दोबारा उभार के दौर में भी चूंकि जेएनयू ने मोटे तौर पर अपनी आधुनिकता को कायम रखा है, इसलिए आइसा का जीतना वहां स्‍वाभाविक है। यह तब तक जारी रहेगा जब तक आजीविका और कैरियर के अकादमिक, पेशेवर, बौद्धिक हलकों में आधुनिकता की मांग होगी।

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English summary
What is the meaning of the victory of AISA in recent JNU elections and why Narendra Modi's magic failed in JNU student elections.
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