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जिस 'मनरेगा' पर सरकार थपथपाती रही पीठ, पढ़ें उसके12 अनसुने सच

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नई दिल्ली। यदि आप बीते कुछ दिनों से टीवी, अखबार या वेबसाइट्स पर नजर रख रहे होंगे तो 'मनरेगा कानून' पर बहस, ब्रेक‍िंग और पैकेज से सामना हो रहा होगा। क्या है मनरेगा की हकीकत ओर क्यों यह एक कानून बनने के बाद भी असफल हुई यह योजना। मनरेगा से सिर्फ किसान और शासन ही नहीं बल्कि‍ एक संवेदना भी जुड़ी थी। वह संवेदना जिसे शुरु करते वक्त कहा गया था कि इससे पलायन रुकेगा, रोजगार की बारिश होगी, अकुशल मजदूरों की जिंदगी में रोशनी आएगी।

अकुशल मजदूर तो इसके भरोसे हो लिए पर अकुशल क्रियान्वयन ने इस योजना की तस्वीर इतनी धुंधली कर दी कि नई सरकार भी इसे अब कानून से बदलकर योजना की शक्ल देने की तैयारी में है। इतना ही नहीं राजस्थान, जहां इस येाजना की सफलता के किस्से सुनने में आए थे, वहां की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने भी बीते दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चिट्ठी लिखकर इसमें बदलाव का सुझाव भेजा है। आइए जानें क्या है मनरेगा की 'ए बी सी डी' जिससे यह विकास की वर्णमाला रचने में नाकामयाब साबित हुई-

मनरेगा की परिभाषा

मनरेगा की परिभाषा

मनरेगा देश की सबसे बड़ी योजना है, जिस पर केंद्र सरकार 40-42 हजार करोड़ रुपये सालाना खर्च करती है। असल में यह एक कानून है, जो शासन को इस बात के लिए बाध्य करता है कि वह किसी भी ग्रामीण परिवार के वैसे सदस्यों को एक साल में सौ दिन का रोजगार मुहैया कराये, जो 18 साल की उम्र पूरी कर चुके हैं और अकुशल मजदूर के रूप में काम करना चाहते हैं।

कमज़ोर नींव

कमज़ोर नींव

25 अगस्त 2005 को नरेगा कानून देश में लागू हुआ और तब से अब तक इसका पूरा-पूरा लाभ लोगों तक पहुंचाने के लिए सरकार की चुनौतियां कम नहीं हुईं। सबसे बड़ी कमी यह रही कि इसमें सीधे तौर पर पैसे का हस्तांतरण होता है। मजदूर में जागरूकता, साक्षरता, एकजुटता और प्रतिरोध की क्षमता के आभाव की वजह से योजना में दरार पड़ी।

राजस्थान रहा अव्वल

राजस्थान रहा अव्वल

ऐसा माना गया कि राजस्थान को छोड़ दें, तो करीब-करीब सभी राज्यों में भुगतान को लेकर मजदूरों की स्थिति एक जैसी है। जो तंत्र राज्य से ग्राम पंचायत स्तर तक इस मनरेगा के कार्यान्वयन में लगा, उसमें भृष्टाचार की खबरें आईं।

 खर्च

खर्च

मनरेगा योजना दो फरवरी, 2006 को देश के 200 जिलों में शुरू की गयी थी। अगले साल इसे और 130 जिलों में विस्तारित किया गया। वर्ष 2008-09 में पहली अप्रैल से यह देश के सभी 593 जिलों में लागू की गयी। इसी अनुपात में मनरेगा का खर्च भी बढ़ता रहा।

लक्ष्य से पीछे

लक्ष्य से पीछे

मनरेगा की योजनाओं के कार्यान्वयन में कई खामियां रही हैं। इस योजना के विशेषज्ञ और आलोचक इन कमियों की चर्चा तो करते ही रहे हैं, भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक ने भी इसे स्वीकार किया। इन कमियों का ही नतीजा रहा कि मनरेगा में जॉब कार्डधारियों को रोजगार देने का राष्ट्रीय औसत केवल 48 कार्य दिवस रिकॉर्ड किया गया।

कम राश‍ि

कम राश‍ि

कई सामाजिक संगठन यह सवाल उठाते रहे हैं कि अनेक राज्यों में मनरेगा का पारिश्रमिक न्यूनतम मजदूरी से कम क्यों है। इस सम्बंध में कर्नाटक उच्च न्यायालय ने संज्ञान भी लिया पर छिटपुट भृष्टाचार तब भी जारी रहा।

समीक्षा

समीक्षा

मनरेगा की समीक्षा में राष्ट्रीय स्तर पर जो तथ्य सामने आये हैं, उनमें मनरेगा के पैसों की बंदरबांट तो हो ही रही है, इस योजना से तैयार होने वाले ग्रामीण विकास के आधारभूत संसाधन और संरचना भी असुरक्षित हैं। तालाब, सिंचाई कूप, गांव-पंचायत के दबंग किस्म के लोग उनका अतिक्रमण और निजी हित में इस्तेमाल करने में पीछे नहीं हैं।

यह राज्य रहा सफल

यह राज्य रहा सफल

तमिलनाडु, राजस्थान में मनरेगा की योजनाएं अन्य राज्यों के मुकाबले सफल रहीं। इसकी एक मात्र वजह रही कि वहां के जनसंगठन व पात्रों की जागरुकता। सूचना का अधिकार अधिनियम आने के पहले उन्होंने इस अधिकार की ताकत को जाना और उसका इस्तेमाल किया। पंचायतों में हुए एक-एक पैसे का खर्च गांधीवादी आंदोलन के जरिये सार्वजनिक करवाया गया व उस पर सुनवाई हुई।

सुप्रीमो सोनिया गांधी ने माना सच

सुप्रीमो सोनिया गांधी ने माना सच

खुद कांग्रेस सुप्रीमो सोनिया गांधी ने माना कि मनरेगा में महिलाओं की कम भागीदारी के लिए कार्यस्थल पर उन्हें बुनियादी सुविधाएं न दिया जाना एक बड़ा कारण है। इस विषय पर प्रधानंमत्री ने भी चिंता जताते हुए कहा कि मनरेगा के 'डिलीवरी सिस्टम' को दुरुस्त करने की जरूरत है।

हेराफेरी

हेराफेरी

मुख्य श‍िकायतों में सामने आया कि कहीं जॉब कार्ड बन जाने पर भी काम नहीं मिला तो तो कहीं पूरे सौ दिन काम न मिलने की और कहीं हाजिरी रजिस्टर में हेराफेरी हुई। एक बार तो मनरेगा के तहत काम करने वाले मजदूरों को सौ रुपये की जगह एक रुपया मजदूरी दिये जाने का मामला तक सामने आया।

हिसाब-किताब नहीं था।

हिसाब-किताब नहीं था।

कुछ साल पहले हुए खुलासे ने तो चौंकाकर ही रख दिया। 1.08 लाख करोड़ रुपये की विशाल राशि का कोई लेखा-जोखा ही मौजूद नहीं था। सीएजी द्वारा 68 जिलों में मनरेगा की राशि के लेखा परीक्षण के दौरान सामने आया कि 11 करोड़ रुपये ही खर्च किये है, क्योंकि बचे हुए बाकी पैसों का सरकार के पास कोई हिसाब-किताब नहीं था।

बेरोजगारी

बेरोजगारी

बेरोजगारी का आलम यह रहा कि मई 2014 में एमए की परीक्षा दे चुकी छात्रा सुमन भारती ने मनरेगा कार्य में मिट्टी खोदने और उसे फेंकने का काम किया। हालांकि काम कोई छोटा या बड़ा नहीं होता, बात इच्छाशक्त‍ि की होती है। इस तरह मनरेगा के पर कतरे जाते रहे व सरकार अपनी पीठ ठोंकती रही।

English summary
MNREGA mission may proves almost fail with it's worst policies
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