शाजिया इलमी जैसी नेताओं के कारण ही निकलती हैं तलवारें
भाई साहब देखने में बड़े सज्जन थे, लेकिन जब उनके बोल फूटे तो मेरे भी होश फाख्ता हो गये। अवधी भाषा में बोले, "भईया हियां दुइये लोगन की लहर है, तिलक की या तलवार, और इस बार मामला फिफ्टी-फिफ्टी नजर आ रहा है।" अगर इस वाक्य की व्याख्या करें तो तिलक माने हिन्दू और तलवार माने मुसलमान। यह बात सुनकर बहुत गुस्सा आया, क्योंकि जिस लखनऊ में मैं पला-बढ़ा, वहां कभी तिलक-तलवार की बात नहीं होती थी।
खैर परिवर्तन तो प्रकृति का नियम है, लेकिन आज शाजिया इलमी को सुनने के बाद अहसास हुआ कि इंनसान की मानसिकता प्रकृति नहीं बदलती बल्कि शाजिया इलमी जैसी नेता बदलते हैं। शाजिया ही क्यों, सहारनपुर के कांग्रेसी नेता इमरान मसूद, आंध्रा के अकबरुद्दीन ओवैसी, गुजरात के अमित शाह, बिहार के गिरिराज सिंह और यूपी के वरुण गांधी भी इसी श्रेणी में आते हैं, जो जनता के बीच ऐसी भावनाओं को भड़काते हैं।
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आम आदमी पार्टी की टोपी लगाकर भड़काऊ बयान देने वाली शाजिया ने सही मायने में तो आम आदमी को ही बदनाम कर दिया, क्योंकि अरविंद केजरीवाल की इस पार्टी को आम आदमी ने अपना समझा था, सोचा था कि ये लोग कोई भी ऐसा काम नहीं करेंगे जो अन्य पार्टियों के नेता करते हैं।
खैर मैं वापस लस्सी की दुकान पर आता हूं
तिलक-तलवार की बात सुनते ही मुझसे नहीं रहा गया और मैं भी उस चर्चा का हिस्सा बन गया। मैंने पूछा भाई साहब क्या तलवारें खींचने से लखनऊ का विकास हो जायेगा। तो भाई साहब ने मेरा परिचय पूछा। बताने पर उन्होंने अपना परिचय, सदानंद चतुर्वेदी, ग्राम अचकामऊ, बाराबंकी रोड दिया और बोले भईया तुम पत्रकार हो, जरा ई बताओ मुजफ्फरनगर में जो हुआ वो क्या ठीक था, मेरठ में जो हुआ क्या वो ठीक था?
पेशे से वकील चतुर्वेदी साहब के इस सवाल का जवाब तो मेरे पास नहीं था, लेकिन एक सवाल जरूर मैंने ठोक दिया, "सर क्या आप बता सकते हैं मुजफ्फरनगर में किसकी जीत हुई और किसकी हार और क्या आप जानते हैं उसमें नुकसान किसका हुआ?" सवाल सुनते ही पहले तो शांति छा गई और फिर धीरे से चतुर्वेदी बोले, "भईया देखो हार जीत हम नहीं जानित है, लेकिन
जब दंगे भयल रहें तब हमरे साहब (लखनऊ के स्थानीय नेता, जिनका बरसों से नेताओं के गढ़ दारुलशफा में ठिकाना है) कहिन रहें कि तैयार रहियो, दू-चार दिन मा कुछ भी होई सकत है।" तब तक लस्सी समाप्त हो गई और हम दोनों अपनी-अपनी राह निकल पड़े।
ग्राउंड जीरो पर असर
इस छोटी सी वार्ता से यह साफ हो गया कि लखनऊ जैसे शहर में जहां हिन्दू-मुसलमान का झगड़ा शायद ही कभी होता है, जब वहां नफरत के बीच घर कर सकते हैं, तो मुजफ्फरनगर के लिये हम अखिलेश सरकार को क्यों दोष देते हैं। सच पूछिए तो छोटी मानसिकता रखने वाले नेता ही आम लोगों को तलवारें निकालने के लिये उकसाते हैं।
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