लोकसभा चुनाव - फैक्ट्स, फैक्टर और फसाने
दिल्ली विधानसभा चुनावों के नतीजों के बाद सर्वेक्षणों पर पूरी तरह भरोसा नहीं किया जा सकता है। य़ह बताता है कि ज़मीनी राजनीति के परिणाम, मीडिया में दिखने वाली छवियों से काफ़ी अलग हो सकते हैं। ऐसा कई बार हो चुका है और इसके दोहराव की संभावनाएं अभी भी बनी है। आखिरकार अंतिम फ़ैसला तो जनता ही करने वाली है।
सत्ता की चाभी जनता के हाथ में है। जनता जागरूक है। लेकिन पूरी तरह से क्षेत्रीय आग्रहों से मुक्त नहीं है। लेकिन समाज के अधिकांश हिस्से में राजनीतिक जागरूरकता में बढ़ोत्तरी हुई है। स्पष्ट है कि जागरूकता का असर चुनाव परिणामों पर भी पढ़ने वाला है। जनमत का निर्माण करने वाले माध्यमों और स्थानीय नेताओं की भूमिका का असर भी बहुत मायने रखता है।
अगले स्लाइडर का पहिया घुमाते हुए जानते हैं आम चुनाव की वे दस बातें जो इसे ख़ास बनाती है -
असली टक्कर तो भाजपा-कांग्रेस की है
अगले आम चुनाव में देश के प्रमुख राष्ट्रीय दलों भाजपा और कांग्रेस की सीधी टक्कर है. लेकिन बाकी पार्टियों के उभार से सारा समीकरण प्रभावित हो सकता है।
फेस-बेस्ड पॉलिटक्स
पूरे चुनाव को व्यक्तित्व केंद्रित बनाया जा रहा है। मोदी, राहुल बनाम केजरीवाल की बहस हो रही है, लेकिन सबसे ख़़ास बात है कि देश में प्रधानमंत्री पद के अनेक दावेदार हैं जो बस मौके की ताक में हैं।
कांग्रेस से जनता नाराज़ तो है
कांग्रेस के ख़िलाफ़ लोगों में विरोध की भावना प्रतीत हो रही है, इसका लाभ बाजेपी को मिल सकता है। लेकिन यह फ़ायदा सीधा नहीं होगा। इसके लिए उन्हें क्षेत्रीय दलों से टकराना होगा और स्थानीय उम्मीदवारों का प्रभाव भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा।
हल्के में न लें क्षेत्रीय दलों को
कांग्रेस के ख़िलाफ़ बनने वाले माहौल में क्षेत्रीय पार्टियों और दलों को भी लाभ मिलेगा ? लेकिन उनको कुछ राज्यों में नुकसान भी हो सकता है। जैसे राजस्थान, छत्तीसगढ़, गुजरात और मध्य प्रदेश में भाजपा और कांग्रेस की सीधी टक्कर है, बाकी राज्यों में सहयोगी दलों और चुनावपूर्व गठबंधन भी परिणामों को प्रभावित कर सकता है।
क्षेत्रयी सहयोगी भी सहमे से हैं
क्षेत्रीय दलों की 2014 के आम चुनावों में निर्णायक भूमिका होगी। लेकिन आम चुनावों में क्षेत्रीय दलों को अपने अस्तित्व पर सीधा हमला होता दिख रहा है। इसलिए वो किसी तरह का नुकसान उठाने की बजाय़ अकेले चुनाव लड़ने को प्राथमिकता देंगे ताकि अपनी स्थिति को बेहतर बना सकें।
गरीबी आज भी है बड़ा मुद्दा
इस बार के आम चुनाव में ग़रीबी एक बार फिर मुद्दे के रूप में सामने है। तमाम दलों की तरफ़ से लोकलुभावन घोषणाओं और वादों की बारिश होती दिखाई दे रही है।
हवा तो 'तीसरे मोर्चे' की निकल रही है
तीसरे मोर्चे की हवा निकल गई है। सारे क्षेत्रीय दलों के ग़ैर-कांग्रेस और ग़ैर बीजेपी सरकार बनाने के दावों में कोई दम नहीं है। क्षेत्रीय दलों में ज़्यादा से ज़्यादा ताक़त और सीट बटोरने की होड़ है ताकि केंद्र में सरकार बनाने में अपनी भूमिका को भुना सकें।
सभी के चहेते बन गए हैं मुस्लिम
अगले आम चुनावों में नेतृत्व, सुशासन और विकास का मुद्दा काफ़ी अहम होगा। सभी दलों में ध्रुवीकरण की कोशिशें हो रही हैं ताकि मुस्लिम समुदाय के वोट बैंक को अपनी ओर खींच सकें।
इतना भी 'आम' ना समझिए इन्हें
आम आदमी पार्टी की मौजदूगी का असर अगले लोकसभा चुनावों पर पड़ने वाला है। इससे नेताओं पर स्तानीय मुद्दों और जन समस्याओं को अपने-अपने मैनीफ़ीस्टो में उठाने की कोशिश करेंगी।
ये 'बदलाव' की जंग है
सांप्रदायिकता के मुद्दे पर इस बार निर्णायक फ़ैसला होने वाला है। अतीत और वर्तमान के विरोधाभाषों की धुंध को साफ़ करने वाले फ़ैसले की उम्मीद है। सांप्रदायिकता और विकास के बीच जनता के चुनाव को सामने लाने वाले नतीजे देखने को मिल सकते हैं।