अभी डूबा नहीं है कांग्रेस का जहाज...
हमने बूढ़ों-बच्चों को इठलाते हुए पूछते-बताते सुना है कि भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू थे। लौह महिला इंदिरा गांधी को कहा गया, कम्प्यूटर क्रांति की अगुवाई में राजीव गांधी ने अहम भूमिका निभाई वगैरह-वगैरह। बदलते दौर में हमने जाना-परखा कि आधुनिकता जब अपने चरम पर आती है तो इतिहास की कलई पर वॉल-पुट्टी का लेप कर जाती है। जहां बाहरी और भीतरी चमक के दावे होते हैं, खोखलेपन को मिटाने
का आश्वासन होता है और सुविधाओं से भरी जिंदगी देने की बुलंद कसमें होती हैं। लच्छेदार भाषा से किसी के भी पक्ष में कलम घिसी जा सकती है व बिना जरूरत के किसी का भी 'राज्याभिषेक' करने की जुर्रत की जा सकती है पर हकीकतें आजकल 'चाहिए' और 'नहीं चाहिए' से तय होती हैं। 2004 की हार के बाद भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व ने जिस सौम्य व जिम्मेदार अंदाज में हार स्वीकारी थी 2014 में उसी सौम्यता और जिम्मेदारी से जीत स्वीकार की।
कांग्रेस, राहुल गांधी व केंद्रीय नेतृत्व के लिए अब कोई आइना व आइना दिखाने वाला भी नज़र नहीं आता। काश, एक बार कांग्रेस जैसे दिग्गज दल ने जनता के बलबूते अपना भविष्य गढ़ने की सूझबूझ दिखाई होती। गांधी परिवार के हाथों से सत्ता जाने की सबसे व्यावहारिक वजह पार्टी के भीतर 'व्यवहारिकता की कमी' रही। जिन्हें हार स्वीकारना नहीं आता, जीत भी उनसे संभाली नहीं जाती। आज प्रशिक्षु पत्रकार से लेकर कार्यकारी संपादक तक कांग्रेस पार्टी पर लिखने से कतरा रहे हैं। आइए हम और आप आगे बढ़ते हैं वजह, रोग और इलाज की चर्चा करते हुए।
किसी बड़े कवि की कलम ने सदियों पहले ही भारतीयों को 'रेल का डिब्बा' बता दिया था, जिसे आगे बढ़ने के लिए हर वक्त एक 'इंजन' की जरूरत है। सालों से चली आ रही गठबंधन की रक्षाबंधन में यूपीए ने नेतृत्व की राखी तो संभाली पर इधर-उधर से चुभे कांटों ने राजनैतिक रिश्तों की रेसम को कुतर सा दिया। एक 'दिग्गज' की मांगें पूरी हुईं तो दूसरे 'दिग्गज' खड़े हो गए। देशहित के मुद्दे उलझे तो इल्जाम सहयोगी दलों पर आया और जब कुछेक योजनाओं का सकारात्मक असर देखने को मिला तो उसका श्रेय हाथ हिलाकर कांग्रेस 'युवराज' या केंद्रीय नेतृत्व के खाते में गया।
जम्मू-कश्मीर जैसे संवेदनशील राज्य में 2009 के बाद से ही सहयोगी दल नेशनल कांफ्रेंस के साथ आंखें-भौंहें सिकुड़ने लगीं। पार्टी मंचों पर नेताओं की भरमार, कार्यकर्ताओं की कमी जैसे कारणों ने तो पार्टी को पलीता लगाया ही साथ ही क्षेत्रीय जनता से 'नॉट रीचेबल' होकर पार्टी ने खुद को 'वीवीआईपी' की श्रेणी में रख लिया। यहां यह लेख भले ही 'कांग्रेस की हार की वजहों' जैसे शीर्षक में बंध रहा हो पर सौ बात की एक बात यह रही कि नेतृत्व ने कभी भी छोटी सी छोटी कमी या क्षेत्रीय चुनावी हार को नहीं स्वीकारा। अतिआत्मविश्वास से लवरेज कांग्रेस 'इंदिरा गांधी और जनता पार्टी' का दौर दोहराने में मग्न दिखी, जिसके बाद 'वोटों' का पहाड़ टूटा और सपने, उम्मीदें, योजनाएं, बिल, अध्यादेश, मेनीफेस्टो आदि-आदि सब ध्वस्त हो गए।
आगे
की
रणनीति
पर
चर्चा
हो
इससे
पहले
हमें,
आपको
और
कांग्रेस-समर्थक-विरोधी
पाठक
को
इस
बात
की
गांठ
बांध
लेनी
होगी
कि
'हार'
से
उबरने
का
सबसे
बेहतर
तरीका
'हार
स्वीकारना'
ही
होता
है।
बहुमत
से
'विपक्षहीनता'
जैसी
स्थिति
से
निपटने
के
लिए
अब
गांधी
परिवार
को
एक
'नेतृत्व'
की
रचना
करनी
होगी।
ऐसा
नेतृत्व
जो
सिर्फ
दाढ़ी
बढ़ाकर
अपनी
'गंभीर
छवि'
का
ढिंढोरा
ना
पीटे।
ऐसा
नेता
जो
हाथ
हिलाकर,
मुस्कराकर
मनरेगा
और
सूचना
का
अधिकार
लाने
की
हैडलाइंस
ना
बनवाए,
बल्कि
जनता
के
सामने
जमीनी
योजनाएं
रखे,
जो
बुनियादी
हों।
सड़क,
पानी
और
बिजली
की
बेहतरी
के
अलावा
देश
के
आंतरिक
और
बाहरी
मुद्दों
पर
ना
सिर्फ
नज़र
रखे
बल्कि
आंकड़ों-विश्लेषणों
के
साथ
उन
के
समाधान
की
स्पष्ट
रूपरेखा
पर
भी
काम
करे।
हमें, आपको या किसी को भी नहीं भूलना चाहिए कि नरेंद्र मोदी के भाषण में भले ही सत्तर प्रतिशत कांग्रेस के घोटोले, कमियां रहतीं थीं पर उनका इंट्रोडक्शन और कन्क्लूज़न 'विकास' पर आकर ही ठहरता था। सोशल मीडिया का बुखार एक अलग बात है पर राजनीति में और ख़ासकर भारतीय राजनीति में व्यक्तित्व का सिक्का चलता है। आप कल क्या थे, इससे मतलब नहीं है, आप आज और अभी क्या हैं उससे भविष्य की दिशाएं तय होती हैं।
मौजूदा दौर में कांग्रेस के लिए उस बालिग बच्चे जैसी स्थति है जिसने खूब ट्यूशनें पढ़ीं, जमकर क्लास में सवाल-जवाब किया पर जब परिणाम आया तो उसके नंबर उस बच्चे से भी कम आए जो कभी स्कूल गया ही नहीं, किताब खोलकर देखी तक नहीं। असम, हरियाणा, महाराष्ट्र, जम्मू-कश्मीर व पश्चिम बंगाल कभी कांग्रेस के लिए संकटमोचक राज्य माने जाते । आगामी महीनों में यहां चुनाव होने वाले हैं और भाजपा एढ़ी चोटी का ज़ोर लगाकर यहां भी अपना झंडा लहराने की ठान चुकी है।
गठबंधन अगर सच था और है, तो कांग्रेस को अब इसे ना सिर्फ दिली तौर पर स्वीकारना होगा बल्कि सहयोगी दलों को भी जरूरत से ज्यादा तवज्जो देनी होगी। मैं ही नहीं, मुझसे कहीं ज्यादा इंटेलेक्च्युल पत्रकार इस बात की पुष्टि कर सकते हैं कि जहां-जहां कांग्रेस का 'कुछ' बचा है वह वहां के नेताओं का व्यक्तिगत व्यवहार है, जिससे जनता जुड़ी हुई है। वरना तो यूपीए कार्यकाल में घोटालों के सिलसिलेवार तूफान , महंगाई, नेतृत्व का ढुलमुल खेल जनता की संवेदनाओं में खंजर भोंक चुका है।
असम में गोगोई, हरियाणा में हुड्डा, महाराष्ट्र में शरद पवार और जम्मू में अब्दुल्ला जैसे रमे हुए दिग्गजों के साथ कांग्रेस को तालमेल बैठाना होगा। इससे भी पहले एक नेतृत्व की रचना को अंजाम देना होगा जो ना सिर्फ पार्टी के कार्यकर्ताओं के बीच हार को जीत में बदलने का उत्साह पैदा करे साथ ही जनता के दिलों में भी कांग्रेस के प्रति सहानुभूति की लौ जलाए।
यही संवेदनाएं नरेंद्र मोदी के भावुक भाषणों पर बहुमत की बारिश करवाती हैं और यही संवेदनाएं कांग्रेस के गढ़ अमेठी में राहुल गांधी और स्मृति ईरानी के बीच वोटों का अंतर बेहद कम कर देती हैं। पांच साल तक जनता भाजपा की उम्मीदों पर जिएगी फिर एक 'नववर्ष' आएगा। क्षेत्रीयता की नब्ज़ पकड़ने में कामयाब हो जाना भारतीय राजनीति में कामयाब हो जाना है। अगर मैं इस लेख में बेहद तथ्य व आंकड़े परोस भी देता तो भी अपनी राय जल्दी नहीं बदल पाता कि अब कांग्रेस की सत्ता में वापसी 'भगवान भरोसे' ही है। पर इसी भारत में हर दौर एक राजनैतिक चमत्कार लेकर आया है। हम विश्लेषकों व जनता को वह भले ही चमत्कार लगा हो पर असल में इसके पीछे बेहतर रणनीति रही है, जिसने जनता के ज़ख्मों पर स्पष्ट नीतियों का लेप किया है।
आज
भी
कांग्रेस
के
पास
नेताओं
व
वोटरों
का
ऐसा
वर्ग
है,
जिसे
पार्टी
में
'ताकत'
नज़र
आती
है।
अब
यह
'ताकत'
विरासत
की
है
या
कोई
और
इसे
तो
कट्टर
विचारधारा
ही
परिभाषित
कर
सकती
है
पर
अभी
कांग्रेस
के
हाथ
से
वक्त
गया
नहीं
है।
शाइनिंग
इंडिया
की
हार
के
बाद
भी
बीजेपी
को
लेकर
ऐसी
ही
खबरें
चलीं
थीं,
अफसोस
से
भरी
डॉक्यूमेंट्रियां
बनीं
थीं
व
राजनैतिक-सामाजिक
पंडितों
ने
खूब
रोदलू
लेख
लिखे
थे
पर
इतिहास
और
वर्तमान
की
टक्कर
हुई
व
भाजपा
प्रचंड
बहुमत
के
साथ
वापस
आई।
नेतृत्व,
नीतियां
और
नीयत
किसी
भी
नाव
को
तूफानी
लहरों
से
बाहर
निकालने
का
दम
रखती
हैं।
(निजी विचार)