अाडवाणी से नरेंद्र मोदी तकः अाडवाणी से कौन सी दुश्मनी निकाल रहे हैं मोदी
जब तैयार होकर उभरे थे अाडवाणी
वर्ष 1970- 1980 के जिस दौर में इमरजेंसी के आंदोलन से निकलकर जनता पार्टी से टूटकर एक राष्ट्रीय पार्टी के रूप में भारतीय जनता पार्टी की नीव रखी जा रही थी। एक संघी (आडवाणी) भारतीय जनता पार्टी के परिपक्व लीडर के तौर पर पार्टी को आगे ले जाने के लिए काम कर रहा था। ठीक उसी समय गुजरात में एबीवीपी विद्यार्थी संगठन से निकलकर एक युवा आरएसएस से जुड़कर नागपुर में ट्रैनिंग ले रहा था।
नाम था नरेंद्र मोदी। 1998 में जब भारतीय जनता पार्टी की सरकार अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में केंद्र में बनी तो केंद्रीय ग्रह मंत्री व उप प्रधानमंत्री के रूप में पद का निर्वाह करने वाला कोई पार्टी सदस्य था तो वह लालकृष्ण अडवाणी ही थे। लालकृष्ण अाडवाणी ने वर्ष 2002 2004 तक उप प्रधानमंत्री की कुर्सी संभाली थी।
यहा मानो अडवाणी की रेस एकदम से थम गई
वर्ष 2004 के बाद जब भारतीय जनता पार्टी की सरकार फिर से नहीं बन सकी और कांग्रेस-यीपीए सत्ता में आई तो, वही वो समय था जब अाडवाणी के मन में देश का प्रधानमंत्री बनने का सपना घर कर गया था। अडवाणी ने इस बात को जगजाहिर वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में खुद ही कर दिया था। बाद में इसका ऐलान राजनाथ सिंह ने एक सभा को संबोधित करते हुए औपचारिक तौर पर कर दिया।
लेकिन केंद्र में सरकार बन ही नहीं सकी। दस साल की यीपीए सरकार के प्रभाव ने भाजपा को हताशा से भर दिया। धीरे-धीरे फूट साफ दिखने लगी। यहीं से अटल बिहारी वाजपेयी को किनारा करा गया और अडवाणी के रथ को दौड़ से बाहर कर दिया गया।
एक अलग तबका तैयार हो रहा था
इस हताशा ने भारतीय जनता पार्टी व आरएसएस में अाडवाणी का महत्व घटने लगा। यह कहें कि अपनी जगह बनाने के लिए अाडवाणी का महत्व खत्म किया गया। एक अलग ही तबका तैयार होने लगा। उन नेताओं का तबका जो अडवाणी पर अपनी गलतियां थोपकर उन्हें नाकाम मान चुका था। जब कि अाडवाणी को आरएसएस ही मुख्यधारा में लेकर आया था। इधर, भारतीय जनता पार्टी में कहीं न कहीं ऐसे गुट भी पनपे जो अडवाणी को किनारा करने के लिए जोर लगा रहे थे। यह ऐसे लोग थे जो कभी खुलकर अाडवाणी के सामने नहीं आ सके।
मोदी की नजर में कब चढ़े अडवाणी
राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ और नरेंद्र मोदी की नजर लालकृष्ण अाडवाणी गुजरात दंगो के दौरान चढ़ गए थे। याद हो वर्ष 2011 में आडवाणी अपनी सपनो की भ्रष्टाचार रथयात्रा गुजरात से निकालना चाहते थे लेकिन प्रधानमंत्री के पद को लेकर नरेंद्र मोदी ने विवाद खड़ा कर लिया था। जिसके बाद विरोध करते हुए आडवाणी को गुजरात से रथयात्रा निकालने का प्लान कैंसल करना पड़ा।
दूसरी ओर अटल बिहारी वाजपयी ने वर्ष 2002 में हुए दंगो को लेकर लापरवाही दिखाने के लिए नरेंद्र मोदी को लताड़ लगाते हुए कहा था कि मुख्यमंत्री अपने राजधर्म का पालन करें। उस समय आडवाणी ने चुप्पी साध ली थी। जिसके बाद से ही लालकृष्ण अाडवाणी नरेंद्र मोदी की आंखों में तो चढ़े ही साथ ही राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के नेता लोग अाडवाणी की भूमिका को संदिग्ध नजरिए से देखने लगे।
शायद कई आरएसएस नेताओं को हिंदुत्व के नाम पर कत्लेआम करने के खिलाफ थोड़ी सी भी अपनी आवाज ऊपर करने पर ही अाडवाणी की भूमिका को लेकर आरएसएस ने पूर्वागृह (पूर्वानुमान) गढ़ लिए। जिसके बाद अाडवाणी का पतन शुरू हो गया और नरेंद्र मोदी को तैयार करने की प्रक्रिया प्रारंभ।
नरेंद्र मोदी वर्सस अडवाणी
नरेंद्र मोदी लालकृष्ण अाडवाणी के खिलाफ सामने से हमेशा मीठे बने रहे। बल्कि नरेंद्र मोदी और नरेंद्र मोदी गुट के ही कई नेता थे जिन्होने अाडवाणी को किनारे लगाने में बड़ी भूमिका निभाई। जब पहली बार नरेंद्र मोदी को भाजपा के ही कुछ नेताओं ने देश का नम्बर वन विकास पुरुष कहा तो इसका विरोध लालकृष्ण अाडवाणी ने किया और कहा था कि विकास पुरुष अगर गिनना चाहें तो भारतीय जनता पार्टी के और भी विकास करने वाले मुख्यमंत्री हैं। जिनका नाम इस श्रेणी में शामिल हो सकता है।
अडवाणी ने किया था विरोध
नरेंद्र मोदी को लोकसभा चुनाव2014 प्रचार समिति का अध्यक्ष नियुक्त करते समय अडवाणी ने पार्टी के सभी पदों से इस्तीफा दे दिया था। इसका क्योंकि अध्यक्ष का नाम पेश करने से पहले अडवाणी चुनाव प्रचार समिति की कमान अपने हाथों में लेना चाहते थे। लेकिन अब वो समय था जब नरेंद्र मोदी अपने करीबियों के बल पर भारतीय जनता पार्टी में घुन की तरह पूरी तरह फैल चुके थे।
अाडवाणी को वापस लाने के लिए सुषमा स्वराज को भेजा गया। सुष्मा स्वराज ने हो न हो किसी बड़े पद की जिम्मेदारी देने के लिए अाडवाणी से कहा होगा। अाडवाणी की करीबी होने मानी जाने वाली सुषमा के कहने पर अडवाणी मान भी गए थे और अपना इस्तीफा वापस ले लिया था। केंद्र में सरकार बन भी गई लेकिन अडवाणी को अभी भी पूरी तरह से किनारे ही लगा रखा है।
ऐसे दिया मोदी ने चकमा
नरेंद्र मोदी ने लालकृष्ण अाडवाणी को हमेशा से मीठा बन कर अपना मार्गदर्शन करने वाला सबसे बड़ा नेता बताया। जबकि सच्चाई इसके उलट है। मोदी अगर किसी निर्णय लेने पर आ जाए तो अडवाणी नाम का कोई मार्ग दर्शक उनके लिए कुछ नहीं है। जबकि यह भी माना जा रहा था कि नरेंद्र मोदी अाडवाणी को राज्यापाल बनाकर सुरक्षित पद दे सकते हैं। लेकिन यह पद भी अाडवाणी को नहीं देने पर अब साफ हो गया है कि नरेंद्र मोदी दुशमनी निकालने पर अड़े हैं।
क्या पड़ा इसका जनता पर प्रभाव
भाजपा की इस अंदरूनी कलह की वजह से भाजपा एक राष्ट्रीय पार्टी होने के नाते जनता का हित कभी नहीं साध सकी। यही कारण था कि जनता ने सबसे ज्यादा साल तक कांग्रेस को ही मौका दिया। इस लोकसभा पार्टी में भारतीय जनता पार्टी को केंद्र की सत्ता जनता ने पूरे मन से बहुत हताश होने के बाद, या कहिए बड़ी आशाओं के साथ सौंपी है। यदि इस बार भी भारतीय जनता पार्टी व आरएसएस अपनी अंदरूनी कलह से ऊपर उठकर जनता के लिए कुछ कर गुजर नहीं पाई तो हो सकता है कि यह ऐतिहासिक जीत कभी आने वाले भविष्य में ऐतिहासिक हार में बदल जाए।