नरेंद्र मोदी की जीत भाजपा की हार!
कुछ वक्त के लिए अगर मैं मान लूं कि मैं पत्रकार की हैसियत से बाहर आकर एक आम लेखक के तौर पर यह लेख लिख रहा हूं और कुछ देर के लिए आप भी यही समझें कि नाश्ते के वक्त एक पत्रिका हाथ लगी है, जिसमें आप अपने और पत्रिका के विचारों को घोलकर राजनीति की लस्सी बना रहे हैं।
स्वाद में आपकी पसंद नमकीन, मीठा, खट्टा, वगैरह-वगैरह हो सकती है, पर आप पिएंगे तो लस्सी ही। ठीक उसी तरह आप सपा, बसपा, कांग्रेस, भाजपा में से किसी भी पार्टी के लिए भीतरी तौर पर पक्ष रखते हों पर महीनों पहले से एक तस्वीर ज़रूर उभर कर आ चुकी होगी। एक चेहरा, एक दल, एक विचारधारा और एक स्ट्रेटजी। आइए उस सांचे में नरेंद्र मोदी को रखते हैं।
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सत्ता अपने साथ कई जि़म्मेदारियां या यूं कहें कि कुछ बोझ लेकर आती है। ‘अच्छे दिन‘ आ भी गए तो क्या मोदी उन्हें बनाए रख पाएंगे। भाजपा विरोधी वर्ग हो या राजनीति के गहरे जानकार, कहीं न कहीं दबी जुबान में कुछ होंठ सुगबुगा रहे हैं कि ‘अगर मोदी जीते तो भाजपा हार जाएगी‘। जल्दबाजी में मुझे भाजपा समर्थक या विरोधी मत समझिएगा। आइए इस ‘तीखी बात‘ के मायने समझते हैं।
जब
संघ
की
छाया
में
भारतीय
जनता
पार्टी
प्रधानमंत्री
पद
की
उम्मीदवारी
पर
माथापच्ची
कर
रही
थी,
तब
भी
पार्टी
के
कई
दिग्गज,
खुद
में
और
नरेंद्र
मोदी
में
कोई
फर्क
नहीं
समझ
रहे
थे।
मध्य
प्रदेश
के
मुख्यमंत्री
शिवराज
सिंह
चैहान
तो
लोकसभा
चुनाव
से
पहले
पीएम
पद
का
उम्मीदवार
घोषित
करने
के
पक्ष
में
ही
नहीं
थे।
दरअसल
देश
की
मुख्य
विपक्षी
पार्टी
भाजपा
भले
ही
2004
से
सत्ता
में
ना
रही
हो,
पर
पार्टी
के
हर
नेता
के
अंदर
एक
‘दिग्गज़पन‘
बना
रहा।
अंदरूनी कलह हर राजनैतिक दल में होती है, पर जिस तरह मुख्य विपक्षी दल के तौर पर भाजपा को भाजपाई संभालने चाहिए थे, उस पर दिग्गजों का ध्यान नहीं गया। लोकसभा चुनावों का बिगुल बजने ही वाला था कि पार्टी की कलह सार्वजनिक होती चली गई। नई पार्टियों के साथ गठबंधन से लेकर टिकट तय करने के तरीकों पर तालमेल के धागे उलझते गए। मोदी के काशी से चुनाव लड़ने पर जहां मुरली मनोहर जोशी तिलमिलाये तो दागियों को टिकट देने पर पार्टी की तेज़-तर्रार सुषमा स्वराज ने आंखें चढ़ाईं।
इस
कलह
के
बीच
यदि
किसी
का
उभार
हुआ
तो
वह
हैं
नरेंद्र
मोदी।
जिस
वक्त
भाजपा
के
कई
तथाकथित
दिग्गज,
अपने
ब्लाॅग
या
ट्विटर
पर
भड़ास
निकाल
कर
ए.सी.
कार्यालय
में
लौट
जाया
करते
थे,
तब
नरेंद्र
मोदी
चिलचिलाती
धूप
में
विकास
और
माॅडल
की
रैलियां
सम्बोधित
करते
थे।
मोदी
अपनी
पार्टी
की
दौलत
थे
पर
अचानक
लोकसभा
की
लंका
जिताने
वाले
‘हनुमान‘
बनकर
सामने
आए,
जो
आखिरी
वक्त
में
‘विकास‘
की
बूटी
से
पार्टी
को
राष्ट्रीय
मंच
पर
खड़ा
कर
सके।
चुनाव
2014
में
बड़ी
भूमिका
निभाने
को
लेकर
मोदी
की
सबसे
ज़रूरी
शर्त
थी,
अमित
शाह
को
करीब
रखना।
मोदी
शाह
को
बीजेपी
के
केंद्रीय
रोल
में
लाना
चाहते
थे,
क्योंकि
शाह
उनके
सबसे
भरोसेमंद
साथियों
में
से
एक
हैं।
गौरतलब है कि शाह पर दंगों-मुठभेड़ के दाग थे। जिसका सीधा सा नहीं, तो तिरछा सा मतलब ये था कि हिंदू कट्टरवादियों ने उन्हें हाथों-हाथ लिया। ज़ाहिर है, जो मुसलमानों के खिलाफ कुछ भी बोलता है, वह हिंदु कट्टरवादियों का स्वाभाविक नेता मान लिया जाता है। दूसरी बात यह कि अमित शाह बहुत बड़े पोल और फंड मैनेजर हैं। शाह की तुलना बीजेपी के भीतर अगर किसी से की जा सकती है तो वह हैं स्वर्गीय प्रमोद महाजन। शाह के दाहिने हाथ महेश जेठमलानी हैं, जो प्रसिद्ध वकील राम जेठमलानी के बेटे हैं। महेश पहले ऐसे शख्स थे जिन्होंने गडकरी के खिलाफ अभियान छेड़ा था। कहा जाता है कि मोदी के इशारे पर ही यह शतरंज रची गई थी, जिसकी गोटियां अमित शाह ने बिछाईं थीं।
नरेंद्र मोदी ने भाजपा को अमित शाह के रूप में एक नया प्रमोद महाजन दिया तो खुद को नेतृत्व की नीतियों में ऐसा ढाला कि सत्ता की शतरंज़ पर रखी जो गोटियां ‘भाजपाईपन‘ के चलते तितर-बितर हो गईं थीं, वे सही खाने में फिट हो गईं। काॅर्पोरेट और मीडिया तंत्र को कैसे अपनी मुट्ठी में रखा जाए, यह परिभाषाएं मोदी ने नए सिरे से रचीं। सीधे शब्दों में समझे ंतो मोदी और बीजेपी की कहानी ठीक वैसी ही है जैसे किसी काॅलेज में सीनियर स्टूडेंट्स ने एक जूनियर को थोड़ा सा सहारा दिया और फिर उस जूनियर का प्लेसमेंट सीनियर्स से भी अच्छे पैकेज पर हो गया।
अब वे सीनियर उस जूनियर के सहारे अपना भविष्य बनाए और बचाए रखना चाहते हैं। आंकलन, आंकड़े, आलोचनाएं और अंदाज़े लगाए जाते रहेंगे, पर सरकार बनने के बाद सबसे बड़ी चुनौती होगी उन सीनियर्स को प्लेस करना, जिन्होंने एक वक्त पर मोदी को प्लेसमेंट दिलवाया था। जनता के पास करने के लिए सिर्फ उम्मीदें ही होती हैं, जो उसने दिल्ली की शीला सरकार के गिरने के बाद केजरीवाल से भी की थीं। सियासत भले ही अब ठंडी हो रही हो पर एक गर्म सवाल बचा है कि क्या नरेंद्र मोदी के जीतने के बाद भाजपा हार तो नहीं जाएगी ?
मयंक
दीक्षित
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