क्या दूसरा दूरदर्शन बनने जा रहा है हमारा FM radio!
दरअसल लिखने की कोशिश की गई थी कि अब जल्द ही सरकार एफएम चैनलों पर न्यूज के प्रसारण की अनुमति देगी। सुनकर कुछ सोचता इससे पहले ही मन में कई तस्वीरें बनने-मिटने लगीं। क्या यह पहल वाकई मीडिया पर महरबानी है या इस नई दवा से सरकार अपने कंधों की मालिश करवाना चाहती है। ठीक वैसे जब 1965 में हमारे सामने दूरदर्शन नाम से 'मनोरंजन' का बक्सा रखा गया था पर गाने-स्तुतियां 'सरकार' की, सरकार के लिए व सरकार के द्वारा होने लगीं।
एफएम चैनल्स पर न्यूज-ब्रॉडकास्टिंग के लिए एक नया इंडिया तैयार हो रहा है। उम्मीद और भरोसा है कि नरेंद्र मोदी 'एफएम न्यूज प्रसारण' को अपनी नीति-नीयत में नहीं बांधेंगे। युवाओं के इशारे समझने वाली यह सरकार भले ही एफएम को सस्ते-फायदेमंद साधन के रूप में देख रही हो, पर यदि इसका इस्तेमाल सिर्फ सरकारी इस्तेमाल के लिए हुआ तो कई ऐसे नुकसान सामने आएंगे, जिससे इस सरकार का वह करिश्मा धुंधला पड़ जाएगा, जो उसने सोशल मीडिया की लैंप से फैलाया है।
देश में आज एक चैनल से 700 आधिकारिक चैनल आ गए। पूरे देश में 15 करोड़ घरों में टी.वी. की आवाज़ें गूंजने लगी। अमरीका और चीन के बाद हम संचार के तीसरे सबसे बड़े बाजार के रूप में उभरे। कहा जाता है कि दूरदर्शन की तकनीकी पहुंच लगभग 90 प्रतिशत है, बावजूद इसके इसे फॉलो करने वालों का आंकड़ा निराश करता है। वक्त के साथ-साथ भले ही सरकारी मीडिया के रंग-रूप, ग्राफिक्स में बदलाव आया हो, पर आज भी हम पाएंगे कि वह ठहरा हुआ है।
सरकारी नीतियों पर मुस्कराता है, सहमते हुए सूचनाएं देता है, फिर कृषि विकास की बैठकें कर सो जाता है। एफएम रेडियो ने अपनी जगह उसी नीरसता के बीच बनाई थी, जो आधुनिक श्रोताओं के पल्ले पड़े, उन्हें सुनने की वजहें दे व मनोरंजन की लत पैदा करे। आज एफएम भी प्रतियोगिता में मिल्खा सिंह की तरह भाग रहा है, हांफ रहा है, कुछ तलाश रहा है। क्या यही वह तलाश है, जिस पर नई सरकार की मुहर लग रही है? अगर हां, तो इस पर ऑडिएंस अभी से सतर्क है। वही ऑडिएंस, जिसने सोशल मीडिया पर 'अच्छे दिन' सुनसुन कर कमल के सामने वाली बटन दबाई थी।
दुनिया भर में कुल 30 लोक सेवा प्रसारण हैं। ऐसा बिल्कुल नहीं है कि जिस संस्था पर 'सरकारी मीडिया' की मुहर हो, उसने अपनी प्राथमिकताओं को तकिए के नीचे रख दिया हो व तय वेतन पर लापरवाही के खर्राटों के साथ जिए जा रही हो। मजबूती और निष्पक्षता में सबसे बेहतरीन और गर्व करने लायक उदाहरण है बीबीसी। बीबीसी का का मॉडल इतना व्यवहारिक है कि आज इसे दुनिया भर में सम्मान और विश्वास की नजर से देखा जाता है।
सबसे ज्यादा विश्वसनीय व लोकप्रिय मीडिया का खिताब बेशक बीबीसी को मिलता है। कुछ आंकड़े या यूं कहें कि हवा में उड़ती खबरें बताती हैं कि हर साल 1800 करोड़ का बजट दूरदर्शन नाम के 'सफेद हाथी' के लिए जारी किया जाता है, जिसमें से सिर्फ 1000 करोड़ खर्च किए जाते हैं। सैम पित्रोदा से लेकर तमाम विशेषज्ञों ने विषय और विषयवस्तु की पड़ताल की, शोध हुए पर सिर्फ और सिर्फ अंदरूनी तत्वों की वजह से आज आकाशवाणी और दूरदर्शन की कंपकंपाती तबीयत है। ऐसी संस्थाएं, जिन्हें संबोधित करते वक्त हम कहते हैं कि एक ऐसा दौर था, जब दूरदर्शन ने धूम मचा दी थी। एक जमाने में रेडियो दहेज में मांगे जाते थे, और जिसे मिल जाता था, वह काबिल दूल्हा कहलाता था।
आज एफएम रेडियो में स्कोप बढ़ा है। मनोरंजन के नाम पर फूहड़ता, वक्त बिताने की कुछ वजहें परोसती आवाज़ें और उन पर 'रेडियो जॉकी' के चटकारे। क्या यह लेख लिखने के बाद मैं और पढ़ने के बाद आप यह उम्मीद करें कि आने वाला एफएम रेडियो, सिर्फ सरकारी कार्यक्रमों की सूचियां और 'कड़वी दवा' की मिठास नहीं परोसेगा। क्या हम यह उम्मीद भी करेंगे कि जो (निजी) मीडिया सरकार की पल-पल की आहटों पर ब्रेकिंग न्यूज चिल्लाते हुए खड़ा हो लेता है, (जो कई बार गलत भी होता है) वह इस एफएम में लोकतंत्र का नया करंट फूंक पाएगा। सिर्फ सूचना और प्रसारण मंत्रालय की प्रेस विज्ञप्तियों से कुछ नहीं होगा। सरकार को एफएम रेडियो पर सिर्फ न्यूज ब्रॉडकास्टिंग नहीं, खबरों की निष्पक्षता भी ब्रॅाडकास्ट करनी होगी। इक्कीसवीं सदी का भारत एक 'नया दूरदर्शन' नहीं चाहता।