'थेवा कला' से बने आभूषण आकर्षण का केंद्र
पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाली इस कला को मुख्यत: पुरुष ही सीखते हैं और वंश परंपरा को आगे बढ़ाते हैं।
17वीं शताब्दी में तत्कालीन राजघरानों के संरक्षण में पनपी राजस्थान की इस बेजोड़ 'थेवा कला' को जानने वाले देश में अब गिने-चुने परिवार ही बचे हैं। ये परिवार राजस्थान के नवगठित प्रतापगढ़ जिले में रहने वाले 'राज सोनी घराने' के हैं। इन्हें इस अनूठी कला के लिए कई अंतर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय पुरस्कार मिल चुके हैं।
'थेवा कला' में विभिन्न रंगों के शीशों (कांच ) को चांदी के महीन तारों से बने फ्रेम में डालकर उस पर सोने की बारीक कलाकृतियां उकेरी जाती हैं। जिन्हें कुशल और दक्ष हाथ छोटे-छोटे औजारों की मदद से बनाते हैं।
इस कला में पहले कांच पर सोने की शीट लगाकर उस पर बारीक जाली बनाई जाती है, जिसे 'थारणा' कहा जाता है। दूसरे चरण में कांच को कसने के लिए चांदी के बारीक तार से फ्रेम बनाया जाता है, जिसे 'वाडा' बोला जाता है। उसके बाद इसे तेज आग में तपाया जाता है। फलस्वरूप शीशे पर सोने की कलाकृति और खूबसूरत डिजाइन उभर कर एक नायाब और लाजवाब कृति का रूप धारण कर लेती है। इन दोनों प्रकार के काम और शब्दों से मिलकर 'थेवा' नाम की उत्पत्ति हुई है।
प्रारम्भ में 'थेवा' का काम लाल, नीले और हरे रंगों के मूल्यवान पत्थरों हीरा, पन्ना आदि पर ही होता था, लेकिन अब यह काम पीले, गुलाबी और काले रंग के कांच के रत्नों पर भी होने लगा है।
प्रारंभ में थेवा कला से बनाए जाने वाले बॉक्स, प्लेट्स, डिश आदि पर लोककथाएं उकेरी जाती थीं, लेकिन अब यह कला आभूषणों के साथ-साथ पेंडल्स, इयर-रिंग, टाई और साड़ियों की पिन कफलिंक्स, फोटोफ्रेम आदि में भी प्रचलित हो चली है।
थेवा कला को आधुनिक फैशन की विविध डिजाइनों में ढालकर लोकप्रिय बनाने के प्रयासों में जुटे जयपुर के 'जेवल ऐस' उपक्रम के मुख्य निष्पादन अधिकारी जेस्टिन वारके बताते हैं कि राजस्थान मंडप को लुप्त होती जा रही इस अनूठी कला को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय बाजार से परिचित कराने और लोकप्रिय बनाने का श्रेय जाता है। यहीं से सर्वप्रथम थेवा कला की नई डिजाइनों और इस कला को जबर्दस्त प्रचार-प्रसार और प्रोत्साहन मिला है।
इंडो-एशियन न्यूज सर्विस।
**