हिन्दी सिनेमा में जातिः सिर्फ रूमानी विद्रोह
सिनेमा की यह धारा, राष्ट्रीय आन्दोलन के कारण उपजे विभिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक आन्दोलनों के उतार-चढ़ाव को सिर्फ रिकार्ड ही नही कर रही थी बल्कि उसे गति भी दे रही थी। इस धारा का नैरंतर्य हम नितिन बोस, चंदूलाल शाह, महबूब खान, बीएन रेड्डी, विजय भट्ट, सोहराब मोदी, मास्टर विनायक, गजानन जागीरदार, विमल राय, ख्वाजा अहमद अब्बास और चेतन आनंद की फिल्मों के रूप में 1947 के पहले और बाद के एक दशक तक पाते हैं।
जाति
बंधन
के
खिलाफ
रूमानी
विद्रोह
कहने
का
मतलब
है
कि
हिन्दी
सिनेमा
में
सामाजिक
सरोकार
स्वाधीनता
आन्दोलन
के
कारण
उत्पन्न
हुआ
था
लेकिन
सामाजिक
सरोकार
वाले
सिनेमा
में
भी
वर्ण
एवं
जाति
प्रथा
पर
जोरदार
चोट
नहीं
की
गई।
इसमें
कोई
दो
राय
नही
कि
फिल्मों
ने
प्रेम
के
क्षेत्र
में
जाति
बंधन
के
विरूद्ध
एक
रोमानी
मानसिक
वातावरण
तैयार
किया
है;
लेकिन
वहीं
दूसरी
ओर
सामाजिक
स्तर
पर
वह
जाति
के
विरूद्ध
वातावरण
तैयार
नही
कर
सका
है।
हिन्दी
सिनेमा
ने
रक्त
सम्बन्धों
को
प्रमुखता
दी
है
तथा
रक्त
श्रेष्ठता
की
स्थापना
की
है।
यहां
तक
कि
नस्लवादी
दृष्टिकोण
के
अनुरूप
उच्च
जाति
के
चरित्रों
को
हमेशा
शूरवीर
तथा
आन-बान-मान-शान
के
लिए
जीवन
न्योछावर
करने
वाले
चरित्रों
के
रूप
में
प्रस्तुत
किया
है।
यह बात राजस्थान की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्मों में अधिकांशत: देखने को मिलती है। ऐसे कथानक हिन्दी फिल्मों में गिने-चुने ही मिलेंगे जिसमें कोई महान कार्य किसी निम्न जाति के व्यक्ति ने किया हो इसलिए मैंने 'वेलकम टू सज्जनपुर" को रेखांकित किया था। इस फिल्म से पूर्व, यदि कभी ऐसा हुआ भी है तो वह भावना पर आधारित है, तर्क पर नहीं। 'जागते रहो" में राजकपूर की जातीय पृष्ठभूमि जाहिर नही है हालांकि फिल्म में वह गांव का गरीब आदमी दिखाया गया है, जो पानी की तलाश में बम्बई की एक बिल्डिंग में घुस गया है। इसी तरह विमल राय की फिल्म 'सुजाता" में नायिका निम्न जाति की है लेकिन नायक की मां उसे तभी स्वीकारती हे जब सुजाता अपना रक्त देकर उसके जीवन की रक्षा करती है। वस्तुत: ऐसा करने में फिल्म का तात्कालिक प्रभाव तो नि:संदेह रूप से बढ़ जाता है लेकिन उसका वास्तविक एवं दीर्घकालिक असर समाप्त हो जाता है।
समस्या
को
आंशिक
तौर
पर
छूती
फिल्में
इसी
के
साथ
इस
बात
पर
भी
गौर
किया
जाना
चाहिए
कि
हिन्दी
फिल्मों
में
अन्तर्जातीय
विवाह
को
जमकर
मान्यता
दी
गई
लेकिन
अन्तर्धार्मिक
विवाह
के
बारे
में
बहुत
कम
चर्चा
हुई
है,
विशेष
कर
हिन्दू
और
मुस्लिमों
में
1996
में
प्रदर्शित
मणिरत्नम्
की
फिल्म
'बाम्बे",
और
2004
में
प्रदर्शित
'वीर-जारा"
और
'यहां"
रूमानी
अपवाद
है।
सवाल
यह
है
कि
जाति
व्यवस्था
जो
भारतीय
समाज
और
आजादी
के
बाद
से
भारतीय
राजनीति
का
एक
निर्णायक
तत्व
बन
चुकी
है,
चुनावों
के
समय
प्रत्येक
चुनाव
क्षेत्र
में
मतदाताओं
का
जातीय
गणित
अखबारों
में
प्रमुखता
से
छपता
है
और
राष्ट्रीय
से
लेकर
क्षेत्रीय
पार्टियां
तक
मतदाताओं
के
जातिगत
समीकरणों
के
अनुरूप
ही
प्रत्याशियों
का
चयन
करती
हैं,
ऐसे
में
सिनेमा
में
क्यों
नहीं
जाति
व्यवस्था
या
जातिगत
राजनीति
प्रतिबिम्बित
हो
रहा
है।
कुछ एक फिल्में इस प्रश्न को समग्रता में तो नहीं, किन्तु आंशिक रूप से छूती है। ऐसी फिल्मों में हम 'गॉडमदर", 'आज का एमएलए राम औतार" को रख सकते हैं। ताजा फिल्म 'बिल्लू बारबर" पर भी मैं चर्चा करूंगा अगली किश्त में।
[लेखक जाने-माने सिनेमा विश्लेषक और दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय में इतिहास के शिक्षक हैं।]