पुण्यतिथि विशेष : पत्नी तक को समर्पित कर दिया संत सेवा में
अहमदाबाद। चल निकल भैया... यहाँ कोई जलाराम नहीं है और नहीं ये कोई जलाराम धाम है...! गुजरात में आम तौर पर आम जनजीवन में यह वाक्य उच्चारण में आता है। यह वाक्य एक गुजराती के रूप में लगभग हर कोई कभी न कभी बोल ही देता है, जब उससे कोई व्यक्ति मुफ्त में कोई चीज मांगता है।
अरे भैया। आप सोच रहे होंगे। वस्तु जिसकी है, उसे देना है, तो दे, न देना हो, तो न दे। इसमें जलाराम को बीच में क्यों लाया जाता है। कौन है ये जलाराम? जलाराम गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र में अवतरित हुए महान संत का नाम है। वे इतने उदार, संत सेवी और दानी थे कि उन्होंने अपनी पत्नी तक को एक संत सेवा में समर्पित कर दिया था। इसीलिए जब कोई व्यक्ति स्वयं को जलाराम जैसा उदार नहीं पाता, तब वह यही कहता है, ‘चल चल निकल यहाँ से, मैं कोई जलाराम जैसा नहीं हूँ।'
आज जलाराम क्यों याद आ गए? अरे भैया, आज उनकी 135वीं पुण्यतिथि जो है। संतों की भूमि सौराष्ट्र में राजकोट से 56 किलोमीटर दूर राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित वीरपुर गाँव मात्र एक गाँव नहीं है, बल्कि श्रद्धालुओं की आस्था का केन्द्र है। यह वही पावन भूमि है, जहाँ 214 वर्ष पूर्व महान संत जलाराम बापा अवतरित हुए थे। जलाराम बापा की संत सेवा की कीर्ति आज भी यहाँ बनी हुई है। जलाराम बापा जनसेवा के प्रति इतनी समर्पित थे कि उन्होंने अपनी पत्नी तक को एक संत की सेवा के लिए समर्पित कर दिया था। जलाराम द्वारा शुरू किया गया सदाव्रत आज 194 वर्षों बाद भी निरंतर जारी है।
पिता प्रधान ठक्कर और माता राजबाई के मंझले पुत्र जलाराम का जन्म विक्रम संवत 1856 में कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की सप्तमी दिन सोमवार को हुआ था। उन्होंने महा वद दशमी विक्रम संवत 1934 को देहत्याग किया था। आज जब पूरा गुजरात जलाराम बापा की 135वीं पुण्यतिथि मना रहा है, तब जलाराम की सेवाभावी जीवनयात्रा बरबस ही याद आ जाती है।
स्कूली पढ़ाई पूरी करने के बाद 16 वर्ष की आयु में जलाराम को अनिच्छा के बावजूद वैवाहिक बंधन में बंधना पड़ा। आटकोट निवासी प्रागजी सामैया की पुत्री वीरबाई उनकी अर्धांगिनी बनीं। विवाह होने के बावजूद जलाराम के जीवन में कोई परिवर्तन नहीं आया। वे और ज्यादा से ज्यादा प्रभुमय रहने लगे। उनका साधु-संतों के प्रति अनहद प्रेमभाव था। साधु-संतों को अन्नदान-वस्त्रदान करके संतुष्टï करते थे। किराने की दुकान संभालना वाले जलाराम हमेशा सेवाबावी गतिविधियों में तन्मय रहा करते थे।
गुजरातवासियों के लिए बापा की उपाधि प्राप्त कर लेने वाले जलाराम ने अमरेली के पास फतेपुर गांव जाकर भोजलराम को गुरु बनाया और वीरपुर में सदाव्रत शुरू करने की गुरुआज्ञा प्राप्त की। फतेपुर से जलाराम वीरपुर आए और उन्होंने पत्नी वीरबाई के साथ खेत में मजदूरी कर अनाज उगाया और उस अनाज से विक्रम संवत 1876 में माघ माह के कृष्ण पक्ष की द्वितीया को सदाव्रत शुरू किया। उस समय जलाराम की आयु 20 वर्ष की थी। यह सदाव्रत आज 194 वर्षों के बाद भी निरंतर चल रहा है।
संतों के भक्त जलाराम बापा की पत्नी वीरबाई भी पति के साथ भक्ति के रंग में रंगती चली गईं। इसी दौरान विक्रम संवत 1886 में जलाराम बापा के आंगन में एक वृद्ध संत पधारे। जलाराम ने सदाव्रत की परम्परा के मुताबिक इस संत से भोजन के लिए आग्रह किया, परंतु संत ने भोजन से इनकार कर दिया और अपना झोली-झंडा (धोको) लेकर चल दिए। जलाराम ने संत को रोका और उनसे इच्छानुसार मांगने को कहा। वृद्ध संत ने सेवा-चाकरी के लिए जलाराम से उनकी पत्नी वीरबाई की मांग की। जलाराम ने क्षण भर भी विचार किए बिना वीरबाई को संत के चरणों में समर्पित कर दिया। वीरबाई ने भी पति की आज्ञा के अनुसार उनका आशीर्वाद प्राप्त कर अपना जीवन संत के चरणों में समर्पित कर दिया और उनके साथ चल पड़ीं।
वीरबाई और वृद्ध संत चलते-चलते एक निर्जन जगह पहुंचे। वहां संत ने वीरबाई को झोली-झंडा थमाते हुए कहा कि वे अभी आते हैं। इतना कहने के बाद वे संत चले गए। संध्या होने तक संत लौटे नहीं। कहा जाता है कि उसी समय आकाशवाणी हुई, जिसमें वीरबाई से कहा गया कि वे संत का झोली-झंडा लेकर वीरपुर सदाव्रत स्थल लौट जाएं। उस संत का झोली-झंडा आज भी वीरपुर में विद्यमान है, जिसकी नियमित पूजा-अर्चना होती है।
वीरपुर में स्थापित जलाराम मंदिर और सदाव्रत प्राकृतिक-मानव सर्जित आपदाओं में आज भी लोगों की सहायता में अग्रसर रहता है। सन् 1963 में यहां आने वाले श्रद्धालुओं के लिए जलाराम अतिथि गृह शुरू किया गया, जिसमें 700 लोगों के रहने की व्यवस्था है।